Sunday, 15 January 2012

वर्षों पहले मैकाले द्वारा रचे षड़यंत्र को आगे बढ़ा रही है कांग्रेस !!

आप भी जानिये कौन था "मैकाले" और क्या है "कांग्रेस" से कनेक्सन .........!!

मित्रों आप आज जो ये "सेकुलर" नस्ल ,अंग्रेजो की गुलामी वाली मानसिकता ,इनके उत्सवो को जोर -सर से मनाने पीढिया ,और अपने संस्कृति का बिलकुल भी ध्यान ना रखने वाले ये जो लोग भी है ,ये समझते है की वो बहुत ही ज्ञानी ,विद्वान और आधुनिक लोग है !
आज आप इन्हें इनके सेकुलर विचार और ब्रितानी स्टाईल पर प्रश्न चिन्ह लगाओगे तो ये आग-बबोला हो उठेंगे और आप को अनपढ़ और गवार और Show-Off करने वाला भी कह सकते है !!

 परन्तु सच्चाई यह है की ये लोग इक बहुत ही खतरनाक रचे हुए साजिश में बुरी तरह फंसाए गए है ,
 और ये साजिस रची थी सन 1835 में मैकाले ने !!

मैकाले हिन्दुस्तानियो को मानसिक स्तर से भी गुलाम बनाना चाहता था और आज उसकी रची हुई साजिस पुरे हिन्दुस्तान के कोने-कोने तक पहुच चुकी है ,और आज ये कांग्रेस उसी षड़यंत्र को आगे बढा रही है !!

मैकाले के शब्द थे .....

‘***अगर आप एक ऐसी युवा पीढ़ी उत्पन्न करना चाहते हैं, जो न केवल अपनी अस्मिता और विरासत से अनभिज्ञ हो, बल्कि उसके प्रति गहरी हिकारत की भावना रख सके, तब उसे संस्कृत की शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए। क्योंकि वह एक ऐसी भाषा है, जो एक भारतीय को अपनी सशक्त परंपरा और विशिष्ट अस्मिता के प्रति सचेत करती है। उसे अंग्रेजी की शिक्षा दी जानी चाहिए, जिसके माध्यम से वह पश्चिमी मूल्यों में दीक्षित हो सके****।’

मैकोले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी वो, उसमे वो लिखता है कि.....

"**इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी** "!!

 अगर हमारे अंग्रेजीदां बौद्धिक आज इन बातों को सुनना भी नहीं चाहते, तो वे मैकॉले को बार-बार सही साबित कर रहे हैं। वे बौद्धिक और उनकी नकल करने वाले हिंदी रेडिकल भी एक कृत्रिम, संकीर्ण दुनिया में रहते हैं।
इसीलिए वे नहीं देख पाते कि भारत में पश्चिमी मानसिकता का दबदबा और हिंदू-विरोधी बौद्धिकता जितनी सशक्त आज है, उतनी ब्रिटिश राज में कभी न रही। हमारे उच्च-वर्ग के बौद्धिक प्रतिनिधि अपने ही देश के धर्म, शास्त्र, साहित्य और परंपराओं के प्रति दुराग्रही हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘तीन सौ रामायण’ से संबंधित विवाद इसका नवीनतम प्रमाण है!!

ध्यान दें, मैकॉले ने हमें अंग्रेजी पढ़ाने पर उतना बल नहीं दिया था जितना संस्कृत और अपनी भाषाओं से अलग करने पर। वह भाषा की भूमिका समझता था। यह मर्म भी कि भारतीयता की आत्मा संस्कृत में बसती है ... इसलिए जो भारतीय अपनी भाषा से कटा, उसे आत्म-हीन बनाना बहुत सरल हो जाएगा। यहां तक कि समय के साथ ऐसे भारतीयों में अनेक को भारत-विरोधी बनाना भी संभव हो जाएगा।

मैकॉले का अभियान सौ वर्ष के अंदर ही आज इंडिया के कोने-कोने तक पहुंच चुका है।
महात्मा गांधी तो अपने जीवन में ही बुरी तरह हार चुके थे, जब उन्होंने दूसरे कामों के अलावा ‘कांग्रेस में एकमात्र अंग्रेज’ को इसी आधार पर अपना उत्तराधिकारी बनाया! उसके बाद जो हुआ, होता रहा, वह हम देखते ही रहे हैं। अपनी भाषा-संस्कृति से प्रेम रखने वाले भारतवासियों को भ्रम-मुक्त होकर और विचारधारा के नशे से भी मुक्त होकर वैकल्पिक उपायों पर सोचना चाहिए !!
इस बात को हमारे अनेक मनीषी और नेता भी समझते थे। इसीलिए उनके लिए लक्ष्य अपनी भाषा में काम करने का था, अंग्रेजी बहिष्कार का नहीं। श्रीअरविंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, सुभाषचंद्र बोस, गांधी, सरदार पटेल, राजाजी, मुंशी, महादेवी, शंकर कुरुप आदि महापुरुषों ने बल दिया था कि हर भारतीय की पहली और सिद्ध भाषा उसकी मातृभाषा हो। तभी वह सच्चे अर्थ में शिक्षित होगा। उनके लिए हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाए रखने का आग्रह उसी का दूसरा पहलू था, कोई विलग बात नहीं।


आज कांग्रेस भी पूरी तरह से मैकाले के सिद्धांत पर चल रही है, हमे हमारे संस्कृति से और दूर ले जा रही है ,आरक्षण के नाम पर हम लोगो को बाँट रही है ,सूर्य नमस्कार पर आपत्ति ,गीता पढने पर बवाल ,और हिन्दुओ के दल को आतंवादी कह रही है
ध्यान रहे नेहरु भी उसी मैकाले के साजिस के तहत राज चलाया था ,आज़ादी के अगले दिन लाल किले से उसने अंग्रेजी में भाषण दिया था जबकि देश की 75-80% जनता अशिक्षित थी ,

हमे कांग्रेस को जड से मिटाना होगानहीं तो हमारी बची-खुची सभ्यता भी खत्म हो जायेगी और आने वाली पीढ़ी पूरी तरह से मानसिक गुलाम हो जायेगी !!
 और वो दिन भी दूर नहीं जब सोनिया मायिनो गांधी इस हिन्दुस्तान को वेटिकन सिटी के पोप को बेंच देगी !!तो अंत में प्रश्न यही उठता है की

"They Did What They Wanted" .....Can We Undo It  ???????????

Wednesday, 28 December 2011

मैकॉले का काला (अंग्रेजी) अभियान सौ वर्ष के अंदर इंडिया के कोने-कोने तक पहुंचा



ध्यान दें, मैकॉले ने हमें अंग्रेजी पढ़ाने पर उतना बल नहीं दिया था जितना संस्कृत और अपनी भाषाओं से अलग करने पर। वह भाषा की भूमिका समझता था। यह मर्म भी कि भारतीयता की आत्मा संस्कृत में बसती है ... इसलिए जो भारतीय अपनी भाषा से कटा, उसे आत्म-हीन बनाना बहुत सरल हो जाएगा। यहां तक कि समय के साथ ऐसे भारतीयों में अनेक को भारत-विरोधी बनाना भी संभव हो जाएगा।

मैकॉले के शब्द थे- ‘अगर आप एक ऐसी युवा पीढ़ी उत्पन्न करना चाहते हैं, जो न केवल अपनी अस्मिता और विरासत से अनभिज्ञ हो, बल्कि उसके प्रति गहरी हिकारत की भावना रख सके, तब उसे संस्कृत की शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए। क्योंकि वह एक ऐसी भाषा है, जो एक भारतीय को अपनी सशक्त परंपरा और विशिष्ट अस्मिता के प्रति सचेत करती है। उसे अंग्रेजी की शिक्षा दी जानी चाहिए, जिसके माध्यम से वह पश्चिमी मूल्यों में दीक्षित हो सके।’

इस बात को हमारे अनेक मनीषी और नेता भी समझते थे। इसीलिए उनके लिए लक्ष्य अपनी भाषा में काम करने का था, अंग्रेजी बहिष्कार का नहीं। श्रीअरविंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, सुभाषचंद्र बोस, गांधी, सरदार पटेल, राजाजी, मुंशी, महादेवी, शंकर कुरुप आदि महापुरुषों ने बल दिया था कि हर भारतीय की पहली और सिद्ध भाषा उसकी मातृभाषा हो। तभी वह सच्चे अर्थ में शिक्षित होगा। उनके लिए हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाए रखने का आग्रह उसी का दूसरा पहलू था, कोई विलग बात नहीं।

अगर हमारे अंग्रेजीदां बौद्धिक आज इन बातों को सुनना भी नहीं चाहते, तो वे मैकॉले को बार-बार सही साबित कर रहे हैं। वे बौद्धिक और उनकी नकल करने वाले हिंदी रेडिकल भी एक कृत्रिम, संकीर्ण दुनिया में रहते हैं। इसीलिए वे नहीं देख पाते कि भारत में पश्चिमी मानसिकता का दबदबा और हिंदू-विरोधी बौद्धिकता जितनी सशक्त आज है, उतनी ब्रिटिश राज में कभी न रही। हमारे उच्च-वर्ग के बौद्धिक प्रतिनिधि अपने ही देश के धर्म, शास्त्र, साहित्य और परंपराओं के प्रति दुराग्रही हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘तीन सौ रामायण’ से संबंधित विवाद इसका नवीनतम प्रमाण है।

अंग्रेजी के एकाधिकार से ही विचार-विमर्श में सामान्य जनगण की इच्छा, भावना आदि का बहिष्कार सहजता से होता है। अंग्रेजी में ‘सार्वजनिक’ विमर्श वैसा ही है, जैसे शीशे के केबिन में बोल कर बाहर लोगों को संबोधित करना। आधुनिक दार्शनिक हाइडेगर ने कहा भी था- ‘हर भाषा उन लोगों के इर्द-गिर्द, जो उसे बोलते हैं, एक जादुई घेरा खींच देती है।’ ऐसे ही एक संकीर्ण घेरे में रहते हुए हमारे बुद्धिजीवी पूरे देश को जानने का भ्रम पालते हैं।

भाषा कोई मोटरकार-सी निर्जीव उपयोगी वस्तु नहीं। भाषा में संस्कृति अनिवार्यत: समाहित होती है। जब आप एक भाषा छोड़ते हैं तो उसकी संस्कृति भी छोड़ते हैं। किसी पराई भाषा में बात कहते हैं तो उस भाषा के आग्रह आपके विचारों को मोड़ने, अनुशासित करने लग जाते हैं। इसीलिए कोई भारतीय अंग्रेजी-भाषी बन कर जनता से ‘ऊपर’ ही हो सकता है, उसके साथ नहीं। यही उसका आकर्षण भी है और भारी सीमा भी। अंग्रेजी सीखने-बोलने की मारा-मारी ज्ञान और विवेक पाने के लिए नहीं हो रही है।

यह भी सर्वाधिक झूठी बातों में एक है कि अंग्रेजी भारत के विभिन्न लोगों को जोड़ती है। उससे भी बड़ी झूठी बात यह है कि अंग्रेजी के बिना अखिल भारतीय संवाद नहीं हो सकता। अभी अण्णा हजारे ने इसे फिर दिखाया कि अंग्रेजी को छोड़ कर ही वास्तविक जन-संवाद हो सकता है। अंग्रेजी की भूमिका तो कहानी के बंदर जैसी है जो पंच बन कर बिल्लियों की रोटियां उड़ाती है। वह भारत के अंग्रेजी-भाषी उच्च-वर्ग से शेष ‘नीचे वालों’ को, फिर उन्हें एक-दूसरे से अलग-थलग कर, असहाय बना कर और हीनता की भावना भर कर वास्तव में तोड़ती है।

इन टूटने वालों में वे भी हैं जो अंग्रेजी लिखते-बोलते हैं, पर अच्छी नहीं। इसलिए भारतीय शिक्षित वर्ग में अंग्रेजी आत्मविश्वास से अधिक एक हीन-भावना, देशवासियों से लगाव के बदले विलगाव और ईर्ष्या-द्वेष से युक्त प्रतियोगिता पैदा करती है। ऐसी चूहा-दौड़, जिसमें देश की कीमत पर स्वार्थ सर्वोपरि होता है। अंग्रेजी की लालसा में सभी भारतीय भाषाओं की हालत पतली हो रही है। उसके साथ-साथ सांस्कृतिक चेतना की भी।

युवाओं में अंग्रेजी भाषी बनने की लालसा दरअसल दूसरों से ऊपर और प्रभावशाली होने की लालसा है। लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले भी इसी लालसा से भारतीय समाज के तुच्छ तत्त्वों ने अंग्रेजी के प्रति अधिक उत्साह दिखाया था। यह रोचक सत्य ब्रिटिश अधिकारी और विद्वान जी लीटनर ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट (१८८३) में नोट किया था। यहां अंग्रेजी शिक्षा आरंभ से ही ज्ञानवान बनने, बनाने की नहीं, बल्कि किसी तरह शासन में कोई स्थान पाकर रौबदार बनने की थी। उसी मनोवृत्ति का विकास होते-होते स्थिति यह बन गई कि स्वतंत्र भारत में भी अंग्रेजी से दूर भारतवासी स्वत: हीन समझा जाता है।

अगर अंग्रेजी देश के हजारों युवाओं को विभिन्न क्षेत्रों में, देश-विदेश में पैसे वाले पदों पर स्थापित कराती है तो लाखों प्रतिभाओं को घुटने, छीजने, नष्ट होने के लिए भी छोड़ देती है। सरल गणित में कहें तो वह हजार देकर लाख छीन रही है। सबसे घातक बात यह है कि अंग्रेजी वर्चस्व हमारे शिक्षित वर्ग को अपनी सभ्यता, संस्कृति और धर्म से विमुख बनाता है। दूसरी ओर, विशाल जन-गण को स्वत्वहीन, निर्बल, मूक बना कर छोड़ देता है। अगर इस अपरिमित हानि की चर्चा नहीं होती, तो इसलिए क्योंकि विचार-प्रचार-शासन की संपूर्ण प्रणाली पर आंग्लभाषियों का विशेषाधिकार है। उनका, जो दासता के प्रतियोगी हैं।

प्रश्न यह है कि क्या हम भारत को अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अरब आदि देशों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला एक अघोषित मानव-कारखाना बनाना चाहते हैं, जो उनके शोध संस्थानों से लेकर हॉलीवुड और झाड़ू-बर्तन, सफाई तक के लिए हर तरह के साधन और ‘मानव संसाधन’ मुहैया करता रहे? चाहे इधर खुद भारत के सामान्य लोग भ्रष्टाचार, बाढ़, सूखा, गंदगी, अपराध से लेकर नक्सलवाद, आतंकवाद, अलगाववाद, सीमाओं के संकुचन जैसी हर विभीषिका के समक्ष असहाय होकर विनष्ट होने के लिए छोड़ दिए जाएं।

‘सिलिकन वैली’ और विदेशों में उद्योग-व्यापार में भारतीय ‘उपलब्धियों’ पर गर्व करने वालों ने क्या कभी सोचा है कि जो भारतीय युवा अंग्रेजी-प्रवीण होते हैं, आमतौर पर उनकी इच्छा कैलिफोर्निया जाकर काम करने की हो जाती है? वही इच्छा धीरे-धीरे, देश-बदल करके अमेरिकी नागरिक बन जाने की भी हो जाती है। इस प्रकार एक भारतीय बालक भारत के संसाधनों का उपयोग कर केवल अंग्रेजी की बदौलत आखिरकार एक विदेशी होकर रह जाता है।इस प्रकार, यहां अंग्रेजी वर्चस्व ने केवल भारतीय युवाओं को प्राय: संस्कृतिहीन और समाज-विमुख बनाया है।

देश की समस्याओं को इस अर्थ में बढ़ाया है कि हमारी सर्वोत्तम प्रतिभाएं या तो विदेश चली जाती हैं या आंतरिक दुर्व्यवस्था का शिकार या उपेक्षित होकर खत्म हो जाती हैं। अन्यथा ठीक यही लोग देश की सभी समस्याओं के समाधान में जुटते। फूट डालो-राज करो के नए, अदृश्य संस्करण के रूप में विभिन्न भारतीय भाषा-भाषियों में आपसी दूरी को बढ़ाया है। विदेशियों द्वारा भारत के एक संकीर्ण आंग्लभाषी वर्ग के माध्यम से संवाद के कारण हम बाहरी दुनिया से और बाहरी दुनिया संपूर्ण भारत से कट गई है।

कृपया इस पर गंभीरता से ध्यान दें, अंग्रेजी के माध्यम से दुनिया से जुड़ने की बात कही जाती है। लेकिन ठीक उसी कारण से वास्तव में हमसे दुनिया कट गई है! किसी विषय में दुनिया भर की सर्वश्रेष्ठ नई पुस्तकें भारत में किसी भाषा में उपलब्ध नहीं होतीं- अंग्रेजी में भी नहीं। क्यों? क्योंकि हमारे उच्च वर्ग के लोग समझते हैं कि यहां ज्ञान-विमर्श की भाषा अंग्रेजी है, इसलिए भारतीय भाषाओं में नवीनतम विश्व ज्ञान, विमर्श को रूपांतरण करने का कोई उद्योग जरूरी नहीं। दूसरी ओर, चूंकि वास्तव में अंग्रेजी में यहां कोई जन-व्यापक अध्ययन नहीं होता, हो ही नहीं सकता, इसलिए (सस्ते उपन्यासों को छोड़ कर) दुनिया भर में अंग्रेजी में लिखित, अनूदित नए राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, लेखन भारत में आते ही नहीं।

सच तो यह है कि अंग्रेजी में उपलब्ध नया विश्व साहित्य भी भारत के बाजार में उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि उसका कोई लाभकारी बाजार नहीं है। केवल इक्का-दुक्का, किसी कारण विख्यात या विवादस्पद पुस्तकें ही भारत की अंग्रेजी किताबों की दुकानों में मिल पाती हैं। यही इसका सबसे भयावह प्रमाण है कि अंग्रेजी के कारण किस तरह हम दुनिया से, और दुनिया हमसे कट गई है। विशेषकर विचार-विमर्श और विद्वत-चर्चा के ही क्षेत्र में।

दूसरी ओर, अंग्रेजी के पीछे बरसों, दशकों मगजपच्ची करने के कारण ही हमारे युवा अपनी भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान को जानने से वंचित रह जाते हैं। इस प्रकार, अंग्रेजी के प्रति युवाओं में ललक बढ़ाना अपने अंतिम परिणाम में एक ओर तो उनके वास्तविक ज्ञान को अतिसीमित कर डालता है। दूसरी ओर, भारतीय राष्ट्र, संस्कृति, खुशहाली, एकता और सामाजिक सौमनस्य के लिए भी घातक हो जाता है।

लेकिन आज देश के अधिकतर शिक्षित लोग इन बातों पर विचार भी नहीं करते। यह इसका प्रमाण है कि भारत का शिक्षित वर्ग अपनी जनता, संस्कृति और ज्ञान की अभिलाषा से दूर हो चुका है। मैकॉले का अभियान सौ वर्ष के अंदर ही आज इंडिया के कोने-कोने तक पहुंच चुका है। महात्मा गांधी तो अपने जीवन में ही बुरी तरह हार चुके थे, जब उन्होंने दूसरे कामों के अलावा ‘कांग्रेस में एकमात्र अंग्रेज’ को इसी आधार पर अपना उत्तराधिकारी बनाया! उसके बाद जो हुआ, होता रहा, वह हम देखते ही रहे हैं। अपनी भाषा-संस्कृति से प्रेम रखने वाले भारतवासियों को भ्रम-मुक्त होकर और विचारधारा के नशे से भी मुक्त होकर वैकल्पिक उपायों पर सोचना चाहिए!

साभार जनसत्ता, शंकर शरण

Sunday, 27 November 2011

उत्तर प्रदेश .............इक "जटिल" राजनीतिक भूमि !!


नमस्कार

मित्रो उत्तर प्रेदेश की राजनीति के बारे मे मै जो कुछ भी लिखू  उसमे कुछ भी नया नहीं होगा ... लगभग हर प्रकार की बातें आप सब जानते ही होंगे ! पर इसके साथ मैंने "जटिल" शब्द का भी प्रयोग किया है ,जटिल शब्द का प्रयोग मैंने इसलिए किया की ये भूमि इतनी अधिक राजनीतिक है की इसके राजनीतिक स्वरूप का वर्णन "श्रीमद भागवत " मे भी इसका उल्लेख है ! मै आज आप लोगो को "श्रवण "कुमार से संबन्धित इक लघु कथा बताता हूँ जिससे यह साबित हो जाता है की ये भूमि कितनी "जटिल राजनीति" वाली है !

जैसा की हम सब जानते है की पूरे भारत वर्ष के राजनीति का केंद्र सिर्फ उत्तर प्रेदेश ही है ... इक अकेला प्रेदेश जो 80 लोकसभा सीटे देकर इस विशाल भारत के भाग्य विधाता का निर्वाचन करता है ! कहते है की "दिल्ली की गद्दी का रश्ता सिर्फ लखनऊ से होकर जाता है "" ! केंद्र मे चाहे जिसकी भी सरकार हो अगर उसे लखनऊ का सपपोर्ट ना हो तो वह बिलकुल भी नहीं चल सकती ! आज केंद्र मे काँग्रेस की सरकार अवस्य है और लखनऊ मे बसपा की लेकिन  सच्चाई यही है की काँग्रेस सरकार को बसपा का समर्थन प्राप्त  है और काँग्रेस जानती है की अगर उसकी सरकार अल्पमत मे आएगी तो बसपा उसका खुला समर्थन करके बचा लेगी और नहीं तो सपा उसका सहयोग अवस्य करेगी !

ये इक ऐसा प्रेदेश है जिसका विधान सभा का परिणाम आने वाले लोकसभा के परिणाम की ब्याखा कर देता है...
यही के "राम मंदिर " के मुद्दे को लेकर भाजपा दिल्ली तक जा पहुची और इसी राम मंदिर ना बना पाने के कारण भाजपा गर्त मे भी चली गई !

यहाँ हर पार्टी अपने अपना सर्वश्रेस्ट दांव चलती है ,यहाँ की हवा कब किस रुख ले ले किसी को नहीं पता ...इस भूमि के कण कण मे राजनीति समाई  है जिसका वर्णन "श्रीमद भागवत ' के इक लघु कथा मे है .....
क्षमा करिएगा मै पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूँ की ये कथा "श्रीमद भागवत की ही है " पर जहां तक मुझे याद है ये प्रवचन मैंने "भगवत पुराण की ही सुनी है

कहानी ये है की "जब श्रवण कुमार अपने माता-पिता को अपने कंधे पर उठा कर तीर्थ यात्रा के लिए निकले थे तो चलते चलते इक स्थान पर पहुचे तो उनके मन मे ये विचार आया की वो ये सब क्यों कर रहे है... क्या लाभ होगा उनको ये सब करके ..... तीर्थ यात्रा वो भी अंधे माता-पिता को क्या आवस्यकता है कराने की ... इसप्रकार के विचार उनके मन मे गहराई से स्थान बनाने लगे ! उस स्थान से वो जितना भी आगे बढ़ रहे थे वो केवल अपने बारे मे, अपने स्वार्थ के बारे मे सोचते जाने लगे ..... जाते जाते वो इक स्थान पर रुक गए और अपने माता -पिता से कहा की अब वो उन्हे तीर्थ यात्रा पे नहीं ले जा सकते क्योकि इसमे उनको कोई लाभा नहीं मिलेगा !फिर उनके माता-पिता ने उनको समझाया की तीर्थ यात्रा के संकल्प को बीच मे नहीं छोडते अगर वो थक गए है तो 1-2 दिन विश्राम कर ले ॥बहुत समझाने के बाद श्रवण कुमार उनको लेकर फिर से यात्रा पर निकाल पड़े ॥लेकिन जैसे जैसे वो आगे बढ़ते जा रहे थे उनके मन मे  सिर्फ लाभ-हानी का विचार चल रहा था ...फिर वो अपने गृहस्थी और अपने जीवन ,यश-किर्ति और वैभव की ही विचार आ रहा था और अन्तः उनके मन मे ये विचार आने लगा की उन्होने उए यात्रा की बीड़ा उठाया ही क्यों ??

इन्ही व्यक्तिगत स्वार्थ और अवसाद से घिरे चलते जा रहे श्रवण कुमार इक स्थान पर पहुचे ही रुक ज्ञे और पूरी दृढ़ता के साथ और पूरे आवेश मे आकार अपने माता-पिता से बोले की उनको लेकर  अब वो इक कदम आगे नहीं बढ़ सकते और साथ मे ये भी कहा की वो उन्हे छोडकर जा रहे है ... माता-पिता के बहुत समझाने पर   भी वो नहीं माने तो उनके पिता ने ईश्वर का ध्यान लगाया .... ध्यान लगाने के उपरांत उन्होने श्रवण कुमार से कहा की वो उन्हे कुछ कोस और दूर लेकर चले फिर वो चाहे तो उन्हे छोड़ कर चले जाये ! श्रवण कुमार इस बात को मान गए  की वो उन्हे कुछ दूर और लेजाकर छोड़ देंगे !

उनके पिता द्वारा बताए गए दूरी को तय करने के पश्चात श्रवण कुमार का मन अचानक पूरी तरह परिवर्तित हो गया और वो पुनः अपने माता -पिता के भक्ति मे डूबते हुए उन्हे तीर्थयात्रा कराने की दृढ़ प्रतिज्ञ का विचार आया , वो अपने माता-पिता के चरणों मे गिर गए  और उनसे रोते हुए अपने किए हुए अपराध का क्षमा मांगने लगे ,फिर उनके माता-पिता ने तुरन उन्हे क्षमा कर दिया !

श्रवण कुमार ने जब इसका कारण जानना चाहत तो उनके पिता ने बताया की इसके जिम्मेदार वो नहीं बल्कि "ये भूमि है " !
उनके पिता ने कहा की ये इक बहुत ही राजनीतिक भूमि है ॥यहाँ किसी भी मनुष्य की सोच बादल जाती है और वो व्यक्तिगत लाभ-हानी ,स्वार्थी,कुटिल प्रवृति का हो जाता है !

"मित्रो जहां से श्रवण कुमार की बुद्धि भ्रमित होनी शुरू  हुई थी आज के दौर मे वही भूमि उत्तर प्रदेश  की भूमि कहलाती है और जिस स्थान पर श्रवण कुमार ने अपने माता पिता को अकेले छोड़ कर जाने का निश्चय कर लिया था और उनके पिता ने कहा था की वो उन्हे उस स्थान से कुछ कोस और आगे ले जाकर छोड़ दे मित्रो आज के दौर वो स्थान पूरे भारत का राजनैतिक ध्रुवीकरण का केंद्र "लखनऊ" कहलाता है" !

कालांतर मे चल कर इसी भूमि के नायक श्री कृष्ण ने इसी भूमि से इक ऐसा राजनैतिक युद्ध की रचना किया जिसमे इक दो खानदान पूरी तरह से खत्म हो गए और ऐसा युद्ध जो न कभी हुआ और ना कभी हो पाएगा और इसी युद्ध के द्वारा नए प्रकार के राजनीतिक और कूटनीतिक तरीको का जन्म भी हुआ था और जिसका प्रयौग   आज उत्तरप्रदेश की भूमि पर पूरे-ज़ोर शोर से हो रह है !!

मित्रो जिस भूमि ने माता-पिता के अनन्य भक्त श्रवण कुमार के मन मष्तिस्क तक को परिवर्तित कर दिया उस उत्तरप्रदेश की भूमि पर आज इतनी गंदी राजनीति होने पर आश्चर्य की कोई आवश्यकता नहीं क्योकि वो समय तो त्रेतायुग था और आज तो कलुयुग है !! और इसी बात से ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है की ये भूमि कितनी बड़ी राजनीतिक है !!

Tuesday, 22 November 2011

एक उत्तर प्रदेश के भारतीय का खुला पत्र राहुल गाँधी के नाम.......................


श्री राहुल गाँधी जी मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि आप देश के बड़े राज (?) परिवार से संबंध रखते हैं परन्तु आपके भाषणों से समृद्ध एवं वैभवशाली भारत के निर्माण की नहीं बल्कि भारत वर्ष को विभाजित करने वाली भाषा सुनाई देने लगी है... कृपया अपने शब्दों को या अपने पी.आर. एजेंसी को थोड़ा शहद घोलने को सलाह दीजिये। अगर आपको उत्तर प्रदेश वासियों (भिखारियों) की इतनी चिंता है तो आप सरकार एवं प्रदेश के सरकारी विभागों की आलोचना करे बिना अपने नाम से एक संस्था बना कर जन जन तक सुविधाएं एवं शिक्षा प्रदान करा सकते हैं, इसी के साथ आप अन्य आवश्यकताओं के लिए भी इन प्रदेश वासियों का सहयोग कर सकते हैं।

मैं सेकुलरी भाषा का प्रयोग करते हुए आपको याद दिलाना चाहूँगा कि " उत्तर प्रदेश के अयोध्या से राजा राम चंद्र जी  ने समस्त भारत व समूचे विश्व का शासन किया था " एवं उनके अनुज " भरत ने अपने पुत्रों तक्ष एवं पुश्क को वर्तमान अफगानिस्तान भेज दो नगरों के निर्माण का आदेश दिया था जिनका नाम पुत्रों के नाम पर तक्षशिला एवं पुष्कलावती रखा गया।
अगर आगे बढें तो द्वारका के अवशेषों से " श्री कृष्ण " के जीवन की पुष्टि होती है जो महाभारत के सूत्रधार थे हस्तिनापुर (निकट मेरठ) से समस्त भारत वर्ष का संचालन किया गया था हस्तिनापुर के राजा " भरत " के नाम पर हमारे देश का नाम " भारत " पड़ा। खांडवप्रस्थ के जंगलों में बने राजमहल से शेष राज्य को युधिष्ठिर ने चलाया जो इन्द्रप्रस्थ कहलाया। युधिष्ठिर एवं दुर्योधन के बीच होने वाला युद्ध " महाभारत " भी उत्तर प्रदेश की मिट्टी का साक्षी बना। उत्तराखंड की भूमि जो समस्त भारत में " देव भूमि " के नाम से जानी जाती है उत्तर प्रदेश का भाग रही। खांडवप्रस्थ के जंगलों मैं बने राजमहल से शेष राज्य को युधिष्ठिर ने चलाया जो इन्द्रप्रस्थ कहलाया। महाभारत के पश्चात राजा युधिष्ठिर के वंशजों में ३० सम्राटों ने १७७० वर्ष, ११ माह, १० दिन राज किया, उसके पश्चात रजा विश्वा के की १४ पीढ़ियों ने ५०० वर्ष, ३ माह, १७ दिन राज किया वहीँ वीरमाह की १६ पीढ़ियों ने ४४५ वर्ष, ५ माह, ३ दिन राज किया ... तत्पश्चात अदित्यकेतु के राज में मगध से राजधानी के संचालन के लिए राजधानी को इन्द्रप्रस्थ से मगध ले जाया गया।

मैं एक उत्तर प्रदेश का नागरिक होने के नाते आपके " भिखारी " शब्द के प्रयोग से अत्यंत आहत हुआ हूँ। मैं यह भी जनता हूँ कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिले राजस्व जमा करने में अधिक आगे हैं परन्तु इस कारण मैं उत्तर प्रदेश के विभाजन का समर्थन नहीं करता मेरा यह मानना है एक बेहतर नेता इस व्यवस्था का समाधान निकाल पूरे राज्य की समस्या हल कर सकता है। इस प्रदेश में समस्त भारत की आत्मा निहित है। आज के युग की बात की जाए तो विश्व पटल पर F1 रेस सर्किट बना दुनिया में अपना नाम कर देने वाले जयप्रकाश उत्तर प्रदेश के हैं एवं यह सर्किट भी नॉएडा, उत्तर प्रदेश में ही स्थित है, वही दूसरी ओर अन्तराष्ट्रीय स्तर पर के कंपनी (DLF) के स्वामी के.पी. सिंह भी जिला सिकंदराबाद के निवासी हैं, युवाओं की दुनिया के सितारे अमिताभ बच्चन, विशाल भारद्वाज, राजू श्रीवास्तव, प्रियंका चोपड़ा, कैलाश खेर, आदि भी...

इतिहास के पन्नों से कुछ निकालूं तो सर्वप्रथम अंग्रेजो के पतन के लिए सर्वप्रथम विद्रोह उत्तर प्रदेश की भूमि से ही शुरू हुआ था , यह नाम मेरे मस्तिष्क में आते हैं प्रथम स्वतंत्रता सेनानी मंगल पाण्डेय, रानी लक्ष्मी बाई, चंद्र शेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, परमवीर चक्र प्राप्त अब्दुल हामिद, मनोज कुमार पाण्डेय (लेफ्टिनेंट), नायिक जादू नाथ सिंह, मेजर सोमनाथ शर्मा, योगेन्द्र सिंह यादव... परन्तु अगर प्रत्येक क्षेत्र में लिखना शुरू करूँ तो न जाने कितने पन्ने भर जायेंगे परन्तु कलम रुकने का नाम नहीं लेगी।

और इतना ही नहीं आपके परनाना ,नाना ,दादी ,और बाप भी इसी उत्तर प्रदेश की भूमि के द्वारा भारत के भाग्य-विधाता बन बैठे !

मैं आपको याद दिलाना चाहूँगा कि जहाँ आप अपने जीवन में ४१ सावन देख चुके हैं वहीँ आपसे कम उम्र के विवेक ओबेरॉय (३५) फोर्ब्स पत्रिका के अनुसार विश्व में सर्वाधिक दान करने वाले १० सर्वश्रेष्ठ सेलेब्रिटी में से एक हैं। वह उत्तर प्रदेश के वृन्दावन में एक आश्रम (जिसमे १७५० बच्चे एवं अधिकतम लड़कियाँ हैं) चला रहे हैं, इसके अलावा मानव आस्था फाउनडेंशन उनके द्वारा चलाया जा रहा है जो वृद्धों की सहायता कर उनके लिए अंतिम इच्छा के रूप में तीर्थों पर जाने की व्यवस्था करवाता है। एक अन्य संस्था " यशोधरा ओबेरॉय फाउनडेंशन " जो उनकी माता के नाम पर पूर्ण रूप से मानव सेवा के लिए समर्पित है से पूर्णतया जुड़े हैं।

इस सूचना से मेरा आश्रय यह था कि जब विवेक ओबेरॉय जैसे कलाकार जिनका जीवन सिनेमा के लिए समर्पित है ऐसे सम्मानीय कार्यों के लिए समय निकाल सकते हैं तो वहीँ आप साक्षात् प्रतिभा हैं और आज कल आपके पास समय का भी अभाव नहीं है तो फिर देरी किस बात की है, परन्तु आप हर मोर्चे पर आलोचना करते दिखाई दिए। आपके मुख से कभी मैंने विकास के लिए किसी नीति का बनाया जाना या भविष्य का भारत कैसा हो नहीं सुना परन्तु सर्वत्र आपके पोस्टर दिल्ली में अवश्य देखता आया हूँ कि युवा कांग्रेस कैसी हो और मीटिंग जापानी पार्क (?) या किसी सुरक्षित क्षेत्र में हो। अगर आप राष्ट्रवादी या देशभक्त है तो आपका जनता के समक्ष आना या एवं वाद विवाद करना ही कर्तव्य होना चाहिए परन्तु आज समस्त युवा भारतीयों के लिए यह जानना आवश्यक है की " यह झिझक कैसी "। हम तो केवल यह चाहते हैं कि युवा आपसे प्रभावित हो, आपसे जुड़े ... परन्तु क्षमा कीजिये ऐसा अवसर आज तक किसी भारतीय को नहीं मिला।

इतिहास ही नहीं वर्तमान भी उत्तर प्रदेश की वीरगाथाओं को गा रहा है परन्तु आप अपनी अज्ञानता के अन्धकार को दीपक नहीं दिखा पा रहे हैं। अगर इंग्लैंड अथवा अमेरिका से शिक्षा प्राप्त करने वाले युवा सफल संचालन कर पाते तो आज उन तथाकथित सभ्य समाज मैं दंगों की स्थिति उत्पन्न न होती। इस भारत देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए आपको इस देश की शिक्षा एवं इस देश के इतिहास को पढना आवश्यक है। अत: अंत में मैं आपसे यही याचना करूँगा की जितनी शिक्षा के अधिकार अधिनियम की आवश्यकता देश को है उतनी ही आपको (?) भी है। दुखी मन के मन के साथ इस पत्र को समाप्त करते हुए। 



एक उत्तर प्रदेश का भारतीय ...

Thursday, 13 October 2011

नमस्कार ....!!

ब्लॉग जगत के सभी अग्रगामी  महानुभावों का बहुत बहुत अभिनन्दन....
फेसबुक की तेज़ भागती दौड़ती अस्थिर दुनिया से ब्लॉग के अपेक्षाकृत ठोस धरातल पर आने के प्रयास में मै... **राजन सिंह अमेठिया**... आप सब का सहयोग और सानिध्य अपेक्षित है ....

मेरे फेसबुक के मित्रों से भी अनुरोध है की कृपया हमारा उत्साह मेरे ब्लॉग पर आकार भी बढ़ाये  ....!!